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राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोत

इतिहास के पुरातात्विक स्रोत: इतिहास की इस पोस्ट में राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्त्रोत के नोट्स एवं महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई गई है जो सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बेहद ही उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है । इतिहास के पुरातात्विक स्रोत

राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोत

राजस्थान के इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक सामग्री का पर्याप्त महत्त्व है। पुरातत्व का अर्थ है – भूतकाल के बचे हुए भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन। इस प्रकार की पुरातात्विक सामग्री के अन्तर्गत शिलालेखों, दानपत्रों, सिक्कों भग्नावशेषों आदि को सम्मिलित किया जाता है।

(1) शिलालेख

राजस्थान के इतिहास की जानकारी के लिए सबसे अधिक विश्वस्त इतिहास बतलाने वाले एक साधन शिलालेख है। जहाँ कई अन्य साधन मूक अथवा अस्पष्ट हैं, वहाँ इतिहास के निर्माण में हमें इन से बड़ी सहायता मिलती है। ये शिलालेख, सिक्कों, प्रस्तर-पट्टों, भवनों या गुहाओं की दीवारों, मंदिरों के भागों, स्तूपों, स्तम्भों, मठों, तालाबों पर स्थित मिलते है। इनमें राजवंशों की उपलब्धियाँ, राजाज्ञाओं, वीर पुरुषों के चरित्र आदि के बारे में जानकारी मिलती है।

(i) बिजौलिया का शिलालेख:— यह लेख बिजौलिया के पार्श्वनाथ मंदिर की उत्तरी दीवार के पास एक चट्टान पर उत्कीर्ण है। यह शिलालेख 1170 ई. का है। इसमें साम्भर तथा अजमेर के चौहान वंश की सूची तथा उनकी उपलब्धियाँ की अच्छी जानकारी मिलती है। इस लेख में चौहान शासकों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। इस लेख में कई प्राचीन स्थानों के नाम जैसे- जाबालिपुर (जालौर), नड्डुल (नाडोल), शाकम्भरी (सांभर), ढिल्लिका (दिल्ली), श्रीमाल (भीनमाल), विंध्यवल्ली (बिजौलिया), नागहद (नागदा), मडण्लकर (माँडलगढ़) आदि नाम मिलते है।
इसका रचियता गुणभद्र था तथा गोविन्द ने इसे उत्कीर्ण किया। प्रशस्तिकार ने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का वर्णन किया है। इस समय दिये जाने वाले भूमि अनुदान को ‘डोहली’ की संज्ञा दी जाती थी।

(ii) चीखे का शिलालेख:— यह लेख उदयपुर से 4 मील की दूरी पर बसे हुए चीखा गाँव के मंदिर के बाहरी द्वार पर लगा हुआ है। यह लेख 1273 ई. का है। इस लेख में 51 श्लोक है। इस लेख में मेवाड़ के गुहिल वंशीय शासकों बापा, पदमसिंह, जेत्रसिंह, तेजसिंह तथा समरसिंह की उपलब्धियों का उल्लेख है। इस लेख से तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

(iii) रसिया की छतरी का शिलालेख:— यह लेख चित्तौड़ के प्रमुख महल के पीछे वाले दरवाजे की ताक में अंकित है। यह लेख 1274 ई. का है। इसकी रचना नागर जाति के ब्राह्मण वेद शर्मा ने की। इस शिलालेख में मेवाड़ के गुहिलवंशीय शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख से मेवाड़ की 13 वीं सदी की सामाजिक अवस्था, शिक्षा के स्तर, उपज वनस्पति आदि के बारे में जानकारी मिलती है।

(iv) चित्तौड़ के पार्श्वनाथ के मंदिर का लेख:— यह लेख 1279 ई. का है। इस लेख से मेवाड़ के शासकों की धार्मिक सहिष्णुता का बोध है। इसके अतिरिक्त इस लेख से तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक स्थिति के बारे में भी जानकारी मिलती है।

(v) आबू का लेख:— यह लेख 1285 ई. का है। इसमें मेवाड़ के गुहिल वंशीय शासकों बापा से लेकर समरसिंह तक की उपलब्धियों का उल्लेख है। इस अभिलेख से आबू पर्वत तथा निकटवर्तीय प्रदेश की उपज, वनस्पति, धार्मिक स्थिति आदि पर प्रकाश डालता है।

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(vi) शृंगी ऋषि का शिलालेख:— यह लेख 1428 ई. है जो एकलिंग से 6 मील दूर शृंगी ऋषि नामक स्थान पर लगा हुआ है। इस शिलालेख के रचयिता ‘वाणी विलास योगेश्वर’ थे। इस लेख में मेवाड़ के गुहिल वंशीय शासकों, हम्मीर, क्षेत्रसिंह, और मोकल की उपलब्धियों का उल्लेख है। इस लेख से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक अवस्था पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

(vii) समिधेश्वर मंदिर का शिलालेख:— यह लेख 1429 ई. का है। इस लेख से मेवाड़ के शिल्पियों के बारे में जानकारी मिलती है। इससे मेवाड़ के शासकों की धर्म-परायणता का भी बोध होता है। इससे ज्ञात होता है कि महाराणा लक्ष सिंह विद्याप्रेमी थे और विद्वानों के आश्रयदाता थे।

(viii) देलवाड़ा का शिलालेख:— यह लेख 1434 ई. का है। इस लेख से 15 वीं सदी के राजस्थान की राजनीति, सामाजिक, धार्मिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। इस लेख से तत्कालीन मुद्राओं के बारे में भी पता चलता है।

(ix) रणकपुर की प्रशस्ति:— यह लेख 1439 ई. का है। यह लेख रणकपुर के चौमुखा मंदिर में लगा हुआ है। इस लेख में मेवाड़ के शासकों बापा से लेकर कुम्भा तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है। इस लेख में महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन भी है। इनमें लेख से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन के बारे में काफी जानकारी मिलती है। (इतिहास के पुरातात्विक स्रोत)

(x) कुम्भलगढ़ का अभिलेख:— यह अभिलेख 1460 ई. का है। इस लेख में मेवाड़ के महाराणाओं की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है। इससे महाराणा कुम्भा की विजयों का विवरण मिलता है। इसके अतिरिक्त हम्मीर, लाखा आदि शासकों की विजयों, धार्मिक कार्यों, तुलादान आदि के बारे में भी जानकारी मिलती है। इस लेख से तत्कालीन मेवाड़ की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति का पता चलता है।

(xi) कीर्ति स्तस्भ प्रशस्ति:— यह प्रशस्ति 1460 ई. की है। इसमें हम्मीर, खेता, मोकल, कुम्भा आदि गुहिल वंशीय शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें हमें महाराणा कुम्भा के विरुद्धों की भी जानकारी मिलती है। प्रशस्ति में कुम्भा को दानगुरु, राजगुरु और शैलगुरु आदि विरुद्धों से सम्बोधित किया गया है। इसमें हमें कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थों- चण्डी शतक, संगीत राज, गीत गोविन्द की टीका आदि का भी उल्लेख है। इसमें हमें 15 वीं शताब्दी के राजस्थान की सामाजिक, धार्मिक राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है

(xii) रायसिंह की प्रशस्ति:— यह प्रशस्ति बीकानेर दुर्ग के एक पार्श्व में लगी हुई है जो महाराजा रायसिंह के सयम की है। यह प्रशस्ति 1594 ई. की है। इस प्रशस्ति से हमें बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का परिचय मिलता है। इस प्रशस्ति से बीकानेर के पराक्रमी शासक की काबुल, सिंध और कच्छ पर विजयों की जानकारी मिलती है। इससे रायसिंह की दानप्रियता, धर्मपरायणता आदि का भी बोध होता है। इस प्रशस्ति के रचियता जइता नामक एक जैन मुनि था जो क्षेमरत्न का शिष्य था।

(xiii) जगन्नाथ राय प्रशस्ति:— यह प्रशस्ति 1652 ई. की है। यह प्रशस्ति उदयपुर में जगन्नाथ राय के मंदिर के सभा-मण्डप के काले पत्थरों पर उत्कीर्ण है। इसमें बापा से लेकर जगतसिंह तक के मेवाड़ के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है। इसमें हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन भी है। इससे महाराजा जगतसिंह की विजयों धार्मिक कार्यों, दान पुण्य आदि के बारे में जानकारी मिलती है। प्रशस्ति में जगन्नाथ राय के मंदिर बनाने वाले सूत्रधार भाणा तथा उनके पुत्र मुकन्द का उल्लेख मिलता है।

(xiv) राजप्रशस्ति:— यह प्रशस्ति 1676 ई. की है। राजसमंद में राजसमुद्र के नौचौकी नामक बाँध पर सीढिय़ों के पास वाली ताक में 25 बड़ी-बड़ी शिलाओं पर 25 सर्गो का राजप्रशस्ति महाकाव्य उत्कीर्ण है जो भारत का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसकी रचना महाराणा राज सिंह के कहने पर रणछोड भट्ट ने की। प्रशस्ति में बापा, कुम्भा, सांगा, प्रताप आदि मेवाड़ के शासकों की उपलब्धियों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसमें महाराणा प्रताप और मानसिंह के मध्य हुए हल्दी घाटी के युद्ध अमरसिंह और जहाँगीर के बीच हुई संधि आदि का भी उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त करणसिंह का गंगा पर किये गये तुलादानों का भी वर्णन है। इस प्रशस्ति से जगतसिंह के निर्माण कार्यों एवं अन्य उपलब्धियों की जानकारी मिलती है। प्रशस्ति में राजसिंह की विजयों, राजसिंह और औरंगजेब के सम्बन्धों, राजसिंह के पुण्य कार्यों आदि का भी उल्लेख है।

(xv) आमेर का शिलालेख:— आमेर के कछवाहा राजवंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें कछवाहा शासकों को ‘‘रघुवंशतिलक’’ कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है। मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के प्राकार वाले दुर्ग के निर्माण का भी उल्लेख है तथा कछवाहों की प्रारम्भिक राजधानी दौसा से रामगढ़ आई का भी उल्लेख है। लेख संस्कृत तथा नागरी लिपि में है। (इतिहास के पुरातात्विक स्रोत)

(xvi) घोसुन्डी:— यह शिलालेख कई टूटे शिला-खण्डों में प्राप्त हुआ है। इनमें से सबसे बड़ा खण्ड़ उदयपुर के संग्रहालय में वर्तमान है। प्रस्तुत लेख की तीन पंक्तियों में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पाषाण की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्व द्वितीय शती ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता व अश्वमेघ यज्ञ का प्रचलन आदि से है। इसमें उस समय प्रयुक्त की जाने वाली राजस्थानी में संस्कृत भाषा और ब्राही लिपि दृष्टव्य है।

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फारसी शिलालेख

(xvii) फारसी का सबसे पुराना लेख अजमेर के ढ़ाई दिन के झोपड़े के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है। यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में मस्जिद का निर्माण कार्य करवाया गया। इसमें अबूबक्र नामक व्यक्ति का उल्लेख है। सम्भवत: उसी के निर्देशन में मस्जिद का निर्माण करवाया गया था।

(xviii) चित्तौड़ में 1325 ई. का एक लेख धाईबी पीर की दरगाह में मिला है इस लेख में चित्तौड़ का नाम ‘‘खिज्राबाद’’ अंकित किया गया।

(xiv) पुष्कर के जहाँगीरी महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है। इस घटना की पुष्टि 1637 ई. के शाहजहानी मस्जिद, अजमेर के लेख द्वारा भी होती है।

(xv) अजमेर की दरगाह में निर्मित शाहजहानी दरवाजे के अभिलेख से पता चलता है कि शाहजहाँ भी धर्मान्ध था। उसने मूर्ति-पूजा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। कोटा जिले के शाहबाद लेख (1679 ई.) से औरंगजेब के समय में वसूल किये जाने वाले विविध करों की जानकारी मिलती है।

(2) सिक्के

👉🏻 राजस्थान के इतिहास के निर्माण में सिक्के भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं। राजस्थान के विभिन्न राज्यों के मेवाड़, प्रतापगढ़, बाँसवाड़ा, जोधपुर, बीकानेर, बूंदी, कोटा, जयपुर आदि के शासकों में सोना, चाँदी, ताँबे के सिक्के प्रचलित किये थे। इन सिक्कों से हमें शासकों की वंशावली वंशक्रम आदि की जानकारी मिलती है तथा अनेक शासकों की धार्मिक प्रवृत्तियों, दानशीलता आदि की जानकारी भी प्राप्त होती है।
👉🏻 पृथ्वीराज के समय का एक सिक्का मिला है जो 1192 ई. का है इस सिक्के के एक तरफ ‘मुहम्मद बिन साम’ तथा दूसरी तरफ ‘पृथ्वीराज’ का नाम अंकित है। इससे प्रतीत होता है कि तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद पृथ्वीराज तृतीय को गजनी नहीं ले जाया गया।
👉🏻 अकबर की चित्तौड़ विजय के पश्चात् मेवाड़ में मुगल शासकों के सिक्के भी चलने लगे। कुछ समय पश्चात् चित्तौड़, भीलवाड़ा और उदयपुर की टकसालों से स्थानीय सिक्के जारी किये गये जिन्हें चित्तौड़, मिलाड़ी और उदयपुरी रुपैया कहा जाता था। जोधपुर के शासक विजय सिंह ने शाहआलम का नाम के सिक्के चलाये जो 1858 ई. तक चलते रहे। ये सिक्के विजयशाही कहलाते थे। बीकानेर के महाराजा गजसिंह ने मुगल सम्राट आलमगीर द्वितीय से अनुमति लेकर अपने सिक्के प्रचलित किये। धार्मिक तथा आर्थिक अवस्था के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

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महत्त्वपूर्ण सिक्के

👉🏻 पारूथ द्रम—यह चाँदी की मुद्रा थी जो पूर्व मेवाड़ राज्य में प्रचलित थी।
👉🏻 मेवाड़ में ताँबे के सिक्कों को ‘ढिग़ला’, ‘भिलाड़ी’, ‘त्रिशूलिया’, ‘भीड़रिया’ आदि नामों से जाना जाता है।
👉🏻 गधिया तथा फदिया—जोधपुर राज्य में प्रचलित सिक्कों के नाम। महाराजा गजसिंह तक गधिया तथा फदिया सिक्के प्रचलित थे। गधिया सिक्कों पर अंकित मूर्ति ‘गधे के मुंह’ की भाँति दिखाई देती थी, इसलिए इन्हें ‘गधिया सिक्के’ कहा जाता था।
👉🏻 मारवाड़ में प्राचीनकाल में ‘पंचमाक्र्ड’ सिक्कों का प्रचलन था। प्रतिहार शासक भोज ने यहाँ ‘आदिवराह’ नाम से सिक्के चलाये। महाराजा विजयसिंह के समय यहाँ विजयशाही सिक्के प्रचलित किये गये।
👉🏻 झाडशाही—जयपुर के कछवाहा शासकों के सिक्कों को ‘झाडशाही’ कहते थे। क्योंकि इन पर 6 टहनियों के झाड़ का चिह्नï बना रहता है। माधोसिंह के रुपये को ‘हाली’ सिक्का कहते थे।
👉🏻 सालिमशाही—प्रतापगढ़ के महारावल सालिम सिंह ने बादशाह शाह-आलम से सिक्के चलाने की आज्ञा प्राप्त की जिसे ‘सालिमशाही’ कहा गया।
👉🏻 सालिमशाही—बांसवाड़ा के सिक्के का नाम। बाद में महारावल लक्ष्मण सिंह ने ‘लछमनशाही’ सिक्कों को प्रचलित किया।
👉🏻 इनके अलावा विजयशाही सिक्के (जोधपुर), गजशाही सिक्के (बीकानेर), उदयशाही सिक्के (डूंगरपुर), तमंचाशाही सिक्के (धौलपुर), रामशाही सिक्के (बूंदी), गुमानशाही सिक्के (कोटा), मदनशाही सिक्के (झालावाड़) तथा राव शाही सिक्के (अलवर) में प्रचलित थे। (इतिहास के पुरातात्विक स्रोत)

अभिलेखों के प्रकार

👉🏻 परवाना — परवाना उन पत्रों को कहा जाता है, जो शासकों द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को भेजे जाते थे।
👉🏻 अखबारात — यह मुगल दरबार द्वारा प्रकाशित दैनिक समाचारों का संग्रह है। इनसे मुगल दरबार की महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों व राजस्थान के विभिन्न राज्यों के शासकों के कार्य-कलापों की जानकारी मिलती है।
👉🏻 फरमान — मुगल बादशाह द्वारा जो आदेश जारी किया जाता था वह ‘फरमान’ कहलाता था।
👉🏻 निशान—बादशाह के परिवार के किसी सदस्य द्वारा मनसबदार को अपनी मोहर के साथ जो आदेश जारी किए गए वे ‘निशान’ कहलाए।
👉🏻 खरीता—एक राजा को दूसरे राजा के साथ जो पत्र व्यवहार होता था। वह ‘खरीता’ कहलाता था।
👉🏻 रूक्का—अधिकारियों के सहज पत्र व्यवहार।
👉🏻 बहियाँ—बहियों से राजा के दैनिक कार्यों के संचालन का बोध होता है। अत: विभिन्न कार्यों हेतु विभिन्न बहियाँ लिखी जाती थी।

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