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भारतीय समाज में आश्रम व्यवस्था | Ashram Vyavastha

आश्रम व्यवस्था | Ashram Vyavastha: इस पोस्ट में वैदिक काल में प्रचलित भारतीय समाज में चार आश्रम व्यवस्था से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी एवं नोट्स उपलब्ध करवाए गए है जो सभी परीक्षाओं के लिए बेहद ही उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है, aashram system in hindi, ashram system in sociology in hindi,

आश्रम व्यवस्था | Ashram Vyavastha

◆ प्राचीनकाल में एक मनुष्य की आयु लगभग 100 वर्ष मानकर उसे चार भागों में विभाजित किया था, ये चार भाग ही आश्रम व्यवस्था के नाम से जाने जाते है
◆ इस आश्रम व्यवस्था का सर्वप्रथम उल्लेख जांबाली ऋषि द्वारा प्रतिपादित जबालोपनिषद ग्रंथ में प्राप्त होता है

ब्रह्मचर्य आश्रम

◆ ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ होता है तपोमय जीवन व्यतीत करना
◆ यह मानव जीवन का सर्वप्रथम आश्रम माना जाता है
◆ इसकी अवधि 0 से 25 वर्ष निर्धारित की गई है
◆ इस आश्रम में मनुष्य धर्म, पुरुषार्थ की प्राप्ति का प्रयास करता है
◆ इस आश्रम में रहकर मनुष्य विद्या अध्ययन करता है
◆ सोलह संस्कारों में से उपनयन संस्कार, वेदारम्भ संस्कार, केशान्त संस्कार और समावर्तन संस्कार इत्यादि प्रमुख संस्कार संपन्न किए जाते हैं

◆ ब्रह्मचारी के लक्षण :- जो मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करता है उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है, वह ब्रह्मचारी सदैव अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखकर धर्म के कार्यों में रत रहता है तथा कठोर व्रत नियमों का पालन करते हुए केवल परम ब्रह्म में ध्यान लगाता है तथा स्वयं भी ब्रह्म स्वरूप होकर इस संसार में विचरण करता है

◆ ब्रह्मचारी के प्रमुख दो भेद माने गए हैं –
(i) नैष्टिक ब्रह्मचारी – जो आजीवन ही ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह नैष्टिक ब्रह्मचारी कहलाता है
(ii) उपकुर्वाण ब्रह्मचारी – जो 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा प्राप्ति के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर जाता है वह उपकुर्वाण ब्रह्मचारी कहलाता है
◆ बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म में ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले मनुष्य को श्रमण के नाम से पुकारा जाता है

गृहस्थ आश्रम

◆ गृहस्थ का शाब्दिक अर्थ होता है – घर में स्थित
◆ यह मानव जीवन का दूसरा आश्रम माना जाता है मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या प्राप्ति के बाद शुभ लक्षणों से युक्त कन्या से विवाह करके इस आश्रम में प्रवेश करता है
◆ इस आश्रम की अवधि 25 से 50 वर्ष निर्धारित की गई है
◆ इस आश्रम में रहकर मनुष्य धर्म, अर्थ एवं एवं काम इन तीनों पुरुषार्थों को पाने का प्रयास करता है
◆ यह मानव जीवन का सर्वप्रमुख आश्रम भी माना जाता है
◆ इस आश्रम को ज्येष्ठाश्रम के नाम से भी जाना जाता है
◆ महाकवि कालिदास ने अपनी पुस्तक रघुवंश रचना में इस आश्रम को सर्वोकारक्षम आश्रम के नाम से भी पुकारा है
◆ मनुस्मृति के अनुसार सभी आश्रम गृहस्थ आश्रम पर ही आधारित माने गए हैं
◆ गृहस्थ आश्रम का पालन / निर्वहन करके ही मनुष्य अपने 3 ऋणों से मुक्ति प्राप्त करता है तीन ऋण – पितृ ऋण, ऋषि ऋण, देव ऋण

वानप्रस्थ आश्रम

◆ यह मानव जीवन की तृतीय अवस्था मानी जाती है
◆ जब कोई मनुष्य गृहस्थ आश्रम का पूर्णत: पालन करने के पश्चात घर की संपूर्ण जिम्मेदारी अपने जेष्ठ पुत्र को सौंपकर पत्नी के साथ किसी वन में चला जाता है एवं वहां नियमपूर्वक योग साधना करते हुए ईश्वर की उपासना में लीन रहता है तो वह वानप्रस्थ आश्रम कहलाता है
◆ वानप्रस्थ का पालन करने वाले मनुष्य को वैखानस के नाम से भी पुकारा जाता है
◆ संयम पालन एवं योग साधना के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के प्रयास करना ही इस आश्रम का सर्वप्रमुख उद्देश्य माना गया है

 सन्यास आश्रम

◆ यह मानव जीवन की चतुर्थ एवं अंतिम अवस्था मानी जाती है
◆ जब कोई मनुष्य अपने संपूर्ण वासनाओं का परित्याग करके केवल मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करने लग जाता है तो वह सन्यास आश्रम कहलाता है
◆ इस संसार में मनुष्य प्रमुखत: दो प्रकार के कर्म करता है –
(i) काम्यकर्म – किसी कामना से किया गया कर्म
(ii) निष्काम कर्म – बिना किसी कामना से किया गया कर्म
◆ जब कोई मनुष्य अपनी समस्त इच्छाओं को त्याग करके निष्काम भाव से ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाता है एवं केवल मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास ही करने लगता है तो वह सन्यासी कहलाता है

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Ashram Vyavastha